Das Mahavidya Mantra | दस महाविद्या मंत्र

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दस महाविद्या

काली, तारा महाविद्या, षोडशी भुवनेश्वरी ।
भैरवी, छिन्नमस्तिका च विद्या धूमावती तथा ॥
बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका ।
एता दश-महाविद्याः सिद्ध-विद्याः प्रकीर्तिताः ॥

दस महाविद्या दुर्गा के ही रूप है जिसे सिद्धि देने वाली मानी जाती है। मां दुर्गा के इन दस महाविद्याओं की साधना करने वाला व्यक्ति सभी भौतिक सुखों को प्राप्त कर बंधन से भी मुक्त हो जाता है। ये दस महाविद्याएं इस प्रकार है – काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला।

श्री देवीभागवत पुराण के अनुसार महाविद्याओं की उत्पत्ति भगवान शिव और सती के बीच एक विवाद के कारण हुई। सती के पिता दक्ष प्रजापति ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने सभी देवी-देवताओं को आमन्त्रित किया लेकिन द्वेषवश उन्होंने अपने जामाता भगवान शंकर और अपनी पुत्री सती को निमन्त्रित नहीं किया। सती, पिता के द्वारा आयोजित यज्ञ में जाने की जिद करने लगीं जिसे शिव ने उन्हें न जाने के लिए समझाया। परंतु सती अपने पिता के आयोजित यज्ञ में जाने के लिए हठ कर रही थी। तब शिव के समझाने पर भी अपनी हठ पकड़े हुए सती ने स्वयं को एक भयानक रूप में परिवर्तित कर लिया। जो स्वयं में महाकाली अवतार में प्रकट हुई। जिसे देख भगवान शिव वहां से भागने को उद्यत हुए। अपने पति को डरा या रुष्ट हुआ जानकर माता सती उन्हें रोकने लगीं। शिव जिस दिशा में गये उस दिशा में माँ का एक अन्य विग्रह प्रकट होकर उन्हें रोकता है। इस प्रकार दसों दिशाओं में माँ ने वे दस रूप लिए थे वे ही दस महाविद्याएँ कहलाईं। इस प्रकार देवी दस रूपों में विभाजित हो गयीं जिनसे वह शिव के विरोध को हराकर यज्ञ में भाग लेने गयीं।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में दस महाविद्याओं का उल्लेख है जिनकी पूजा हर प्रकार की शक्तियों को प्राप्त करने के लिए की जाती है। महाविद्या पूजा को साधना के रूप में जाना जाता है जिसमें उपासक एक ही देवी को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए ध्यान केंद्रित करता है। किसी भी साधना में यंत्र और मंत्र बहुत ही प्रभावशाली माध्यम माने जाते हैं जिनके माध्यम से उपासक अपने लक्ष्य तक पहुंच सकता है और उसे करने के अपने मकसद को पूरा कर सकता है। तांत्रिकों द्वारा दस महाविद्याओं की साधना की जाती है, जो कि गुप्‍त होती हैं।
दस महाविद्याओं की पूजा से भक्तो को उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है।

काली कुल तथा श्रीकुल

दस महाविद्याओं को दो कुलों में विभाजित किया गया है।

काली कुल – मां काली, मां तारा और मां भुवनेश्वरी
श्रीकुल – मां बगलामुखी, मां कमला, मां छिन्नमस्ता, मां त्रिपुर सुंदरी, मां भैरवी, मां मांतगी और मां धूमावती

प्रथम महाविद्या – काली

Kali or Mahakali the first form of Das Mahavidya.

दस महाविद्या की प्रथम देवी – आदिशक्ति काली

काली, परब्रह्म का परम रूप, “काल की भी काल,” कालीकुल प्रणालियों की सर्वोच्च देवता, महाकाली। महाकाली का रंग गहरा काला है, जो मृत्यु-रात्रि के अंधेरे से भी गहरा है। उनकी तीन आंखें हैं, जो भूत, वर्तमान और भविष्य का प्रतिनिधित्व करती हैं। उसके चमकदार सफेद, नुकीले दांत, खुला मुंह और उसकी लाल, खूनी जीभ वहां से लटकी हुई है। उसके असीमित, अस्त-व्यस्त बाल हैं। उसने अपने वस्त्र के रूप में बाघ की खाल, खोपड़ियों की माला और गले में गुलाबी लाल फूलों की माला पहनी हुई थी, और उसकी कमर पर कंकाल की हड्डियाँ, कंकाल के हाथ और साथ ही बोहोतसारे कटे हुए हाथ और पाँव उसके आभूषण के रूप में सुशोभित है। उस देवी के चार हाथ हैं, उनमें से दो के पास त्रिशूल और तलवार है और एक राक्षस का कटा हुआ सिर पकड़े हुए है और एक कटोरा है जो राक्षस के सिर से टपकते खून को इकट्ठा करता है।

उद्देश्य – विद्या, लक्ष्‍मी, राज्य, अष्टसिद्धि, वशीकरण, प्रतियोगिता विजय, युद्ध-चुनाव आदि में विजय एवम् मोक्ष तक प्राप्त होता है।

इनके भैरव कालभैरव हैं।

लाल रंग के वस्त्र पहन कर तथा लाल आसन पर बैठकर काली हकीक की माला से जप करें ।

दिशा – पूर्व अथवा उत्तर।

नियमित उपासक – ब्रह्म मुहूर्त अथवा सूर्योदय से डेढ़ घंटे के भीतर करें।

साधक – रात्री १० बजे के बाद साधना करें।

मूल मंत्र – ॐ क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं दक्षिण का‍लिके क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं स्वाहा।

शाबर मन्त्र – ॐ निरंजन निराकार अवगत पुरुष तत-सार, तत-सार मध्ये ज्योत, ज्योत मध्ये परम-ज्योत, परम-ज्योत मध्ये उत्पन्न भई माता शम्भु शिवानी काली ॐ काली काली महाकाली, कृष्ण वर्णी, शव वाहिनी, रुद्र की पोषणी, हाथ खप्पर खडग धारी, गले मुण्डमाला हंस मुखी । जिह्वा ज्वाला दन्त काली । मद्यमांस कारी श्मशान की राणी । मांस खाये रक्त पीवे । भस्मन्ती माई जहां पाई तहां लगाई। सत की नाती धर्म की बेटी इन्द्र की साली काल की काली जोग की जोगन, नागों की नागन मन माने तो संग रमाई नहीं तो श्मशान फिरे अकेली चार वीर अष्ट भैरों, घोर काली अघोर काली अजर बजर अमर काली भख जून निर्भय काली बला भख, दुष्ट को भख, काल भख पापी पाखण्डी को भख जती सती को रख, ॐ काली तुम बाला ना वृद्धा, देव ना दानव, नर ना नारी देवीजी तुम तो हो परब्रह्मा काली ।

द्वितीय महाविद्या – तारा

Tara or Smashan Tara the second form of Das Mahavidya.

दस महाविद्या की द्वितीय देवी – तारा अथवा श्मशान तारा

तारा देवी मार्गदर्शक और रक्षक के रूप में है। जो परम ज्ञान प्रदान करती है जो मोक्ष देती है। वह ऊर्जा के सभी स्रोतों की देवी हैं। सूर्य को भी उसीसे ऊर्जा प्राप्त है। वह समुद्र मंथन की घटना के बाद भगवान शिव की मां के रूप में प्रकट हुईं ताकि उन्हें अपने बच्चे के रूप में पाकर शिव जी को स्वस्थ कर सके। तारा हल्के नीले रंग की है। उसके बाल बिखरे हुए हैं, वह अर्धचंद्र के अंक से सुशोभित मुकुट पहने हुए है। उसकी तीन आंखें हैं, उसके गले में मौज से लिपटा एक सांप, बाघ की खाल पहने हुए, और खोपड़ी की एक माला। वह बाघ की खाल से बना पल्ला अपनी कमर में पहने हुई हैं। उसके चार हाथों में एक कमल, कृपाण, राक्षस का सिर और कतरनी है। उनका बायां पैर लेटे हुए शिव पर टिका है। समय आने पर वह अपनी भुजाओ की क्षमता बढ़ा सकती है।

उद्देश्य – शत्रुओं का नाश, ज्ञान तथा जीवन के हर क्षेत्र में सफलता के लिए इनकी साधना की जाती है।

इनके भैरव अक्षोभ्य हैं।

श्वेत वस्त्र पहन कर तथा लाल आसन पर बैठकर स्फटिक माला से जप करें ।

दिशा – दक्षिण

स्थान – श्मशान भूमि

नियमित उपासक – इनकी साधना न करें।

साधक – रात्री १० बजे के बाद साधना करें।

मूल मंत्र – ॐ ऐं ओं क्रीं क्रीं हूं फट्।

मंत्र – ऐं ऊँ ह्रीं क्रीं हूं फट्।

मंत्र – ॐ ह्रीं स्त्रीं फट्।

शाबर मन्त्र – ॐ आदि योग अनादि माया जहाँ पर ब्रह्माण्ड उत्पन्न भया । ब्रह्माण्ड समाया आकाश मण्डल तारा त्रिकुटा तोतला माता तीनों बसै ब्रह्म कापलि, जहाँ पर ब्रह्मा-विष्णु-महेश उत्पत्ति, सूरज मुख तपे चंद मुख अमिरस पीवे, अग्नि मुख जले, आद कुंवारी हाथ खड्ग गल मुण्ड माल, मुर्दा मार ऊपर खड़ी देवी तारा । नीली काया पीली जटा, काली दन्त में जिह्वा दबाया । घोर तारा अघोर तारा, दूध पूत का भण्डार भरा । पंच मुख करे हां हां ऽऽकारा, डाकिनी शाकिनी भूत पलिता सौ सौ कोस दूर भगाया । चण्डी तारा फिरे ब्रह्माण्डी तुम तो हों तीन लोक की जननी ।

तीसरा महाविद्या – षोडशी | त्रिपुर सुंदरी

Shodashi or Tripur Sundari the third form of Das Mahavidya.

दस महाविद्या की तीसरी देवी – षोडशी, ललिता त्रिपुर सुंदरी, श्रीविद्या, राजराजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बाला, बालापञ्चदशी जैसे अनेक नाम है ।

कुछ ग्रंथो के अनुसार ये चतुर्थ देवी है। परंतु इनकी पूजा नवरात्री की तीसरी रात्रि को करते है।

त्रिपुरा सुंदरी (षोडशी, ललिता) देवी जो “तीन लोकों में सुंदर” हैं। श्रीकुल प्रणालियों की सर्वोच्च देवता है। “तांत्रिक पार्वती” या “मोक्ष मुक्ता” नाम से भी जानी जाती है। यह देवी के शाश्वत सर्वोच्च निवास मणिद्वीप की प्रमुख देवता हैं। षोडशी का रंग पिघले हुए सोने की तरह है। वह तीन शांत आँखे, शांत चेहरे, लाल और गुलाबी वस्त्र पहने हुए, अपने दिव्य अंगों और चार हाथों पर आभूषणों से सुशोभित दिख रही है। उसके हाथ में अंकुश, कमल, धनुष और तीर है। वह सिंहासन पर बैठी है।

उद्देश्य – हर क्षेत्र में सफलता हेतु इनकी साधना की जाती है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए। अपार धन-समृद्धी एवम् यश प्राप्ति के लिए।

इनके भैरव पंचवक्त्र शिव हैं।

प्रतिरूप – श्री यंत्र अथवा कमल पर विराजमान माता लक्ष्मी।

दिशा – पूर्व अथवा उत्तर।

कुशासन अथवा लाल या पीला कंबल आसन। वस्त्र, नैवेद्य सभी पीत अथवा लाल अथवा श्वेत होने चाहिए। स्फटिक माला से जप करें ।
नियमित उपासक – ब्रह्म मुहूर्त करें।

नियमित उपासक – ब्रह्म मुहूर्त अथवा सूर्योदय से डेढ़ घंटे के भीतर अथवा रात्रि १० के बाद करें।

साधक – रात्री १० बजे के बाद साधना करें।

मूल मंत्र – श्री ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं क्रीं कए इल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नम:।

मंत्र – ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं क ए ह ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं महाज्ञानमयी विद्या षोडशी मॉं सदा अवतु।।

शाबर मन्त्र – ॐ निरञ्जन निराकार अवधू मूल द्वार में बन्ध लगाई पवन पलटे गगन समाई, ज्योति मध्ये ज्योत ले स्थिर हो भई ॐ मध्याः उत्पन्न भई उग्र त्रिपुरा सुन्दरी शक्ति आवो शिवधर बैठो, मन उनमन, बुध सिद्ध चित्त में भया नाद । तीनों एक त्रिपुर सुन्दरी भया प्रकाश । हाथ चाप शर धर एक हाथ अंकुश । त्रिनेत्रा अभय मुद्रा योग भोग की मोक्षदायिनी । इडा पिंगला सुषम्ना देवी नागन जोगन त्रिपुर सुन्दरी । उग्र बाला, रुद्र बाला तीनों ब्रह्मपुरी में भया उजियाला । योगी के घर जोगन बाला, ब्रह्मा विष्णु शिव की माता ।

पाठ – श्री सूक्तम् ।

चतुर्थ महाविद्या – छिन्नमस्ता

Chhinnamasta the fourth form of Das Mahavidya.

दस महाविद्या की चतुर्थ देवी – छिन्नमस्ता।

कुछ ग्रंथो के अनुसार ये तृतीय देवी है। परंतु इनकी पूजा नवरात्री की चतुर्थ रात्रि को करते है।

छिन्नमस्ता स्वयंभू देवी है जिसने जय और विजय अर्थात रजस और तमस गुणों को संतुष्ट करने के लिए उसने अपना सिर काट लिया है । छिन्नमस्ता का रंग लाल है, जो भयानक रूप के साथ सन्निहित है। उसके बिखरे बाल हैं। उसके चार हाथ हैं, जिनमें से एक हाथ में तलवार है और दूसरे हाथ में स्वयं का कटा हुआ सिर है। वह भयानक चेहरे वाली तीन चमकती आंखें धारण किये, मुकुट पहने हुए है। उसके दो अन्य हाथों में से एक में कमंद और दूसरे में पीने का कटोरा है। वह एक आंशिक रूप से कपड़े पहने महिला है, जो उसके अंगों पर आभूषणों से सुशोभित है और उसके शरीर पर खोपड़ी की माला है। वह एक मैथुन करने वाले जोड़े की पीठ पर खड़ी है।

उद्देश्य – संतान प्राप्ति, दरिद्रता निवारण, काव्य शक्ति लेखन, शत्रु-विजय, समूह-स्तम्भन, राज्य-प्राप्ति, कुंडलिनी जागरण एवम् मोक्ष की प्राप्ति होती है।

इनके भैरव क्रोध भैरव हैं।

श्वेत वस्त्र पहन कर तथा लाल कंबल आसन पर बैठकर स्फटिक माला से जप करें ।

दिशा – दक्षिण अथवा पूर्व अथवा उत्तर।

स्थान – श्मशान भूमि अथवा गुरु के मार्गदर्शन से मन्दिर में साधना करें ।

नियमित उपासक – इनकी साधना न करें।

साधक – रात्री १० बजे के बाद साधना करें।

मूल मंत्र – श्री ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवैरोचनीये हूं हूं फट् स्वाहा।

शाबर मन्त्र – सत का धर्म सत की काया, ब्रह्म अग्नि में योग जमाया । काया तपाये जोगी (शिव गोरख) बैठा, नाभ कमल पर छिन्नमस्ता, चन्द सूर में उपजी सुष्मनी देवी, त्रिकुटी महल में फिरे बाला सुन्दरी, तन का मुन्डा हाथ में लिन्हा, दाहिने हाथ में खप्पर धार्या । पी पी पीवे रक्त, बरसे त्रिकुट मस्तक पर अग्नि प्रजाली, श्वेत वर्णी मुक्त केशा कैची धारी । देवी उमा की शक्ति छाया, प्रलयी खाये सृष्टि सारी । चण्डी, चण्डी फिरे ब्रह्माण्डी भख भख बाला भख दुष्ट को मुष्ट जती, सती को रख, योगी घर जोगन बैठी, श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी ने भाखी । छिन्नमस्ता जपो जाप, पाप कन्टन्ते आपो आप, जो जोगी करे सुमिरण पाप पुण्य से न्यारा रहे । काल ना खाये ।

पांचवी महाविद्या – भुवनेश्वरी

Bhuvaneshwari the fifth form of Das Mahavidya.

दस महाविद्या की पांचवी देवी – भुवनेश्वरी

कुछ ग्रंथो के अनुसार ये चतुर्थ देवी है। परंतु इनकी पूजा नवरात्री की पांचवी रात्रि को करते है।

भुवनेश्वरी विश्व माता के रूप में हैं। इनका शरीर सभी १४ लोक एवं संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है। भुवनेश्वरी गोरी, सुनहरे रंग की है। इसकी तीन संतुष्ट आँखें और साथ ही शांत भाव है। वह लाल और पीले वस्त्र पहनती है। उसके अंग आभूषणों से सुशोभित है और उसके चार हाथ हैं। उसके चार में से दो हाथों में अंकुश और फंदा है जबकि उसके दो अन्य हाथ खुले हैं। वह दिव्य सिंहासन पर विराजमान है। बाघ पर बैठती है तो स्वयं जगदम्बा है।

भगवान कृष्ण की भी माता भुवनेश्वरी आराध्या रही हैं जिससे वे ‘योगेश्वर’ कहलाए।

उद्देश्य – इनका साधक कीचड़ में कमल की तरह संसार में रहकर भी योगी कहलाता है। वशीकरण, सम्मोहन, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष देती हैं।

इनके भैरव त्र्यम्बक‍ शिव हैं।

रक्त वर्ण के वस्त्र पहन कर तथा रक्त वर्ण के आसन पर बैठकर स्फटिक माला से जप करें ।

दिशा – दक्षिण अथवा पूर्व अथवा उत्तर।

नियमित उपासक – ब्रह्म मुहूर्त अथवा सूर्योदय से डेढ़ घंटे के भीतर करें।

साधक – रात्री १० बजे के बाद साधना करें।

मूल मंत्र – ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सौ: भुवनेश्वर्ये नम:।

मूल मंत्र – ह्रीं।

मूल मंत्र – ऐं ह्रीं।

मूल मंत्र – ऐं ह्रों ऐं।

मूल मंत्र – ऐं ह्रीं श्रीं।

शाबर मन्त्र – ॐ आदि ज्योति अनादि ज्योत ज्योत मध्ये परम ज्योत परम ज्योति मध्ये शिव गायत्री भई उत्पन्न, ॐ प्रातः समय उत्पन्न भई देवी भुवनेश्वरी । बाला सुन्दरी कर धर वर पाशांकुश अन्नपूर्णी दूध पूत बल दे बालका ऋद्धि सिद्धि भण्डार भरे, बालकाना बल दे जोगी को अमर काया । चौदह भुवन का राजपाट संभाला कटे रोग योगी का, दुष्ट को मुष्ट, काल कन्टक मार । योगी बनखण्ड वासा, सदा संग रहे भुवनेश्वरी माता ।

छठी महाविद्या – त्रिपुर भैरवी

Bhairavi, Tripur Bhairavi, Patal Bhairavi the sixth form of Das Mahavidya.

दस महाविद्या की छठी देवी – त्रिपुर भैरवी जिनके अन्य नाम भैरवी, नित्य भैरवी, भद्र भैरवी, श्मशान भैरवी, सकल सिद्धि भैरवी, पाताल भैरवी, संपत-प्रदा भैरवी, कामेश्वरी भैरवी है।

कुछ ग्रंथो के अनुसार ये पांचवी देवी है। परंतु इनकी पूजा नवरात्री की छठी रात्रि को करते है।

भैरवी एक उग्र देवी है। भैरव का स्त्री रूप है। भैरवी उग्र ज्वालामुखी के समान लाल रंग की है, जिसकी तीन उग्र आँखें और अस्त-व्यस्त बाल हैं। उसके उलझे हुए बाल गोखरू में बंधे हैं, और अर्धचंद्र द्वारा सजाये गए है। उसके शीश को दो सींगों सुशोभित कर रहे है। उसके रक्त से लाल मुंह को दो उभरे हुए दांत शोभा दे रहे हैं। वह लाल और नीले रंग के वस्त्र पहनी है और उसके गले में खोपड़ियों की माला सुशोभित है। वह कटे हुए हाथों और उससे जुड़ी हड्डियों से सजी माला अपने कमर में पहनी हुई है । वह अपने आभूषण के रूप में सांपों और नागों से अलंकृत है। उसके चार हाथों में से दो खुले हुए हैं और दो में एक माला और पुस्तक धरे हुए है।

उद्देश्य – ऐश्वर्य प्राप्ति, रोग-शांति, त्रैलोक्य विजय व आर्थिक उन्नति के लिए पूजी जाती हैं।

इनके भैरव बटुक भैरव हैं। चाहे इनके भैरव बटुक भैरव है, इनकी पूजा करते समय काल भैरव की पूजा अवश्य करें।

रक्त वर्ण के वस्त्र पहन कर तथा रक्त वर्ण के आसन पर बैठकर स्फटिक माला से जप करें ।

दिशा – पूर्व।

नियमित उपासक – ब्रह्म मुहूर्त अथवा सूर्योदय से डेढ़ घंटे के भीतर करें।

साधक – रात्री १० बजे के बाद साधना करें।

मूल मंत्र – हसरैं हसकलरीं हसरौ:।

मूल मंत्र – हस: हसकरी हसे।

मंत्र – हस्त्रौं हस्क्लरीं हस्त्रौं।।

मंत्र – ह्रीं भैरवी क्लौं ह्रीं स्वाहा ।

मंत्र – ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम: ।

मंत्र – ॐ ह्रीं सर्वैश्वर्याकारिणी देव्यै नमो नम:।

शाबर मन्त्र – ॐ सती भैरवी भैरो काल यम जाने यम भूपाल तीन नेत्र तारा त्रिकुटा, गले में माला मुण्डन की । अभय मुद्रा पीये रुधिर नाशवन्ती ! काला खप्पर हाथ खंजर कालापीर धर्म धूप खेवन्ते वासना गई सातवें पाताल, सातवें पाताल मध्ये परम-तत्त्व परम-तत्त्व में जोत, जोत में परम जोत, परम जोत में भई उत्पन्न काल-भैरवी, त्रिपुर- भैरवी, समपत-प्रदा-भैरवी, कौलेश- भैरवी, सिद्धा-भैरवी, विध्वंशिनी-भैरवी, चैतन्य-भैरवी, कमेश्वरी-भैरवी, षटकुटा-भैरवी, नित्या-भैरवी, जपा-अजपा गोरक्ष जपन्ती यही मन्त्र मत्स्येन्द्रनाथजी को सदा शिव ने कहायी । ऋद्ध फूरो सिद्ध फूरो सत श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथजी अनन्त कोट सिद्धा ले उतरेगी काल के पार, भैरवी भैरवी खड़ी जिन शीश पर, दूर हटे काल जंजाल भैरवी मन्त्र बैकुण्ठ वासा । अमर लोक में हुवा निवासा ।
पूजा- श्री दुर्गा सप्तशती में महिषासुर वध का अध्याय करें।

सातवीं महाविद्या – धूमावती

Dhumavati the seventh form of Das Mahavidya.

दस महाविद्या की सातवीं देवी – धूमावती है। जो ज्येष्ठा लक्ष्मी कहलाती हैं।

धूमावती एक विधवा का रूप धारण किये है। यह धुएँ के रंग के गहरे भूरे रंग की है। उसकी त्वचा झुर्रीदार है। उसका मुँह सूख गया है। उसके कुछ दाँत गिर गए हैं। उसके लंबे बिखरे हुए बाल भूरे हैं। उसकी आँखें रक्तवर्ण के रूप में दिखाई देती हैं। इस देवी को एक भयावह स्थिति, जिसे क्रोध, दुख, भय, थकावट, बेचैनी, निरंतर भूख और प्यास के संयुक्त स्रोत के रूप में देखा जाता है। वह सफेद कपड़े पहनती है और विधवा के वेश में। वह अपने परिवहन के वाहन के रूप में एक घोड़े रहित रथ में बैठी है। उसके रथ के शीर्ष पर एक ध्वजा है जिसका प्रतिक एक कौआ है। उसके दो कांपते हाथ हैं, उसका एक हाथ वरदान और ज्ञान प्रदान करता है और दूसरे हाथ में सूप की टोकरी है।

उद्देश्य – कर्ज से मुक्ति, दरिद्र दूर करने, जमीन-जायदाद के झगड़े निपटाने, उधारी वसूलने के लिए पूजी जाती हैं।

इनके कोई भैरव नहीं है।

अन्य देवियों की तरह पूजन सामग्री निषेध है। रंगीन वस्तु कोई भी नहीं चढ़ाई जाती है।

श्वेत वर्ण के वस्त्र पहन कर तथा श्वेत वर्ण के आसन पर बैठकर तुलसी की माला से जप करें ।

दिशा – दक्षिण अथवा उत्तर।

स्थान – श्मशान भूमि अथवा शून्यागार में गुरु के मार्गदर्शन में साधना करें ।

नियमित उपासक – इनकी साधना न करें।

साधक – रात्री १० बजे के बाद साधना करें।

मूल मंत्र – धूं धूं धूमावती स्वाहा ।

मूल मंत्र – धूं धूं धूमावती ठ: ठ:।

शाबर मन्त्र – ॐ पाताल निरंजन निराकार, आकाश मण्डल धुन्धुकार, आकाश दिशा से कौन आये, कौन रथ कौन असवार, आकाश दिशा से धूमावन्ती आई, काक ध्वजा का रथ अस्वार आई थरै आकाश, विधवा रुप लम्बे हाथ, लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव, डमरु बाजे भद्रकाली, क्लेश कलह कालरात्रि । डंका डंकनी काल किट किटा हास्य करी । जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते जाजा जीया आकाश तेरा होये । धूमावन्तीपुरी में वास, न होती देवी न देव तहा न होती पूजा न पाती तहा न होती जात न जाती तब आये श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथ आप भयी अतीत ।

आठवीं महाविद्या – बगलामुखी 

Pitambara Baglamukhi the eighth form of Das Mahavidya

दस महाविद्या की आठवीं देवी – माँ बगलामुखी है। जो माँ पीताम्बरा कहलाती हैं।

यह युग इनका ही है।

बगलामुखी देवी शत्रुओं का नाश करती हैं। इस देवी को पीताम्बरा भी कहते है। देवी बगलामुखी का रंग पिघले हुए सोने जैसा है। उसकी तीन चमकदार आंखें, हरे-भरे काले बाल और सौम्य चेहरा हैं। वह पीले रंग के वस्त्र और आभूषण पहने हैं। उसके दो हाथों में से एक के गदा है और दूसरे हाथ में राक्षस मदनासुर की जीभ पकड़ी हुई है। वह सिंहासन अर्थात सारस की पीठ पर बैठी हुई है।

उद्देश्य – रोग-दोष, शत्रु शांति, वाद-विवाद, कोर्ट-कचहरी में विजय, युद्ध-चुनाव विजय, वशीकरण, स्तम्भन तथा धन प्राप्ति के लिए अचूक साधना मानी जाती है। व्यापार वृद्धि एवं राजसत्ता की प्राप्ति के लिए पूजी जाती हैं।

इनके भैरव मृत्युंजय है।

विशेष सावधानी आवश्यक है। पीला आसन, पीला वस्त्र, हरिद्रा माला का प्रयोग होता है।

दिशा- पूर्व अथवा उत्तर।

गुरु के मार्गदर्शन में साधना करें ।

नियमित उपासक – इनके मूल मंत्र का सवा लाख का अनुष्ठान स्वयं करके या किसी ब्राह्मण से करवाने के बाद ही दिनचर्या में मंत्र जाप करें। 

नियमित उपासक – ब्रह्म मुहूर्त अथवा सूर्योदय से डेढ़ घंटे के भीतर करें।

साधक – रात्री १० बजे के बाद साधना करें।

मूल मंत्र- ह्लीं ।

मूल मंत्र- ॐ ह्लीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय, जिव्हा कीलय, बुद्धिं विनाश्य ह्लीं ॐ स्वाहा।

शाबर मन्त्र – ॐ सौ सौ दुता समुन्दर टापू, टापू में थापा सिंहासन पीला । संहासन पीले ऊपर कौन बसे । सिंहासन पीला ऊपर बगलामुखी बसे, बगलामुखी के कौन संगी कौन साथी । कच्ची-बच्ची-काक-कूतिया-स्वान-चिड़िया, ॐ बगला बाला हाथ मुद्-गर मार, शत्रु हृदय पर सवार तिसकी जिह्वा खिच्चै बाला । बगलामुखी मरणी करणी उच्चाटण धरणी, अनन्त कोट सिद्धों ने मानी ॐ बगलामुखी रमे ब्रह्माण्डी मण्डे चन्दसुर फिरे खण्डे खण्डे । बाला बगलामुखी नमो नमस्कार ।

नौंवी महाविद्या – मातङ्गी 

Matangi the ninth form of Das Mahavidya

दस महाविद्या की नौंवी देवी – मातङ्गी है।

देवी मातंगी श्रीकुल प्रणाली में प्रधान मंत्री या अमात्य के रुप में है। इसे “तांत्रिक सरस्वती” भी कहते है। इसका रंग पन्ना की तरह हरा है। उसके चमके अस्त-व्यस्त काले बाल और तीन शांत आँखें है। उनका चेहरा शांत है। वह अपने नाजुक अंगों पर विभिन्न आभूषणों से सजी लाल वस्त्र और परिधान पहने हुए हैं। वह एक राजसी सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके चार हाथ हैं, जिनमें से तीन में एक हाथ में तलवार, एक में खोपड़ी और एक में वीणा है। उनका एक हाथ अपने भक्तों को वरदान देता है। माता ज्ञान देते समय सरस्वती के रुप में दिखाई देती है।

उद्देश्य – शीघ्र विवाह, गृहस्थ जीवन सुखी बनाने, वशीकरण, गीत-संगीत में सिद्धि प्राप्त करने के लिए पूजी जाती हैं।

इनके भैरव मातङ्ग है।

दिशा- पूर्व अथवा उत्तर।

नियमित उपासक – ब्रह्म मुहूर्त अथवा सूर्योदय से डेढ़ घंटे के भीतर अथवा रात्रि १० के बाद करें।

साधक – रात्री १० बजे के बाद साधना करें।

मूल मंत्र- श्री ह्रीं क्लीं हूं मातङ᳭गयै फट् स्वाहा।

शाबर मन्त्र – ॐ शून्य शून्य महाशून्य, महाशून्य में ओंकार, ओंकार मे शक्ति, शक्ति अपन्ते उहज आपो आपना, सुभय में धाम कमल में विश्राम, आसन बैठी, सिंहासन बैठी पूजा पूजो मातंगी बाला, शीश पर शशि अमीरस प्याला हाथ खड्ग नीली काया। बल्ला पर अस्वारी उग्र उन्मत्त मुद्राधारी, उद गुग्गल पाण सुपारी, खीरे खाण्डे मद्य मांसे घृत कुण्डे सर्वांगधारी। बूँद मात्रेन कडवा प्याला, मातंगी माता तृप्यन्ते तृप्यन्ते। ॐ मातंगी, सुंदरी, रूपवन्ती, धनवन्ती, धनदाती, अन्नपूर्णी, अन्नदाती, मातंगी जाप मन्त्र जपे काल का तुम काल को खाये । तिसकी रक्षा शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी करे ।

दसवीं महाविद्या – कमला 

Kamala, Mahalakshmi the tenth form of Das Mahavidya.

दस महाविद्या की दसवीं देवी – कमला है। इनके अन्य नाम कमलात्मिका, लक्ष्मी, षोडशी, भार्गवी, त्रिपुरा है।

कमलात्मिका, कमला, कमल, पद्मिनी ऐसे कई नाम है इस देवी के। इसे “तांत्रिक लक्ष्मी” से भी जानते है। यह देवी पिघले हुए सोने के रंग की है। इसके चमकते काले बाल है। इसकी तीन चमकदार और शांत आँखें है। इसकी उदार अभिव्यक्ति है। वह लाल और गुलाबी रंग के वस्त्र और परिधान पहने और अपने अंगों पर विभिन्न आभूषणों और कमलों से सुशोभित दिखाई देती हैं। वह पूरी तरह से खिले हुए कमल पर विराजमान हैं, जबकि उनके चार हाथों में दो कमल हैं, जबकि दो अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरी करते हैं और भय से सुरक्षा का आश्वासन देते हैं।

यह देवी त्रिपुर शिव की पत्नी होने से इन्हे त्रिपुरा कहा जाता है। शिव स्वयं की इच्छा से त्रिपुर स्वरूप त्रिधा मतलब तीन भाग में हो गए।

जिनका ऊर्ध्वः भाग गौरवर्ण, चार भुजावला और चतुर्मुख ब्रह्मरूप कहलाया। ब्रह्मा के साथ जुड़ा स्वरूप महासरस्वती कहलाया।

मध्यभाग नीलवर्ण, एक मुख और चतुर्भुज विष्णु कहलाया। विष्णु के साथ जुड़ा स्वरूप कमला एवं महालक्ष्मी कहलाया।

अधोभाग स्फ़टिक वर्ण, पञ्चमुख और चतुर्भुज शिव कहलाया। पार्वती का स्वरूप जो शिव से जुड़ा है वह शक्ति एवं त्रिपुरा कहलाया।

महालक्ष्मी के समुद्र में समाहित होने के पश्चात् देवी कमला समुद्र मंथन के फलस्वरूप प्रादुर्भावित हुई थी। और इन्होने भगवान विष्णु को पतिरुपमें पुनः वरण किया।

उद्देश्य – भौतिक साधनों की वृद्धि, व्यापार-व्यवसाय में वृद्धि, धन-संपत्ति प्राप्त करने एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए के लिए पूजी जाती हैं।

इनके भैरव सदाशिव है।

गुलाबी वस्त्रासन, कमल गट्टे की माला आदि प्रयोग किए जाते हैं। अथवा लाल कंबल आसान एवं स्फटिक या कमलगट्टे की माला का प्रयोग भी किया जा सकता है। बिल्वपत्र एवं बेल फल से हवन एवं पूजा से विशेष लाभ मिलता है।

दिशा- पूर्व अथवा उत्तर। सूर्यास्त के बाद पश्चिम की और मुख करके पूजन कर सकते है।

नियमित उपासक – ब्रह्म मुहूर्त अथवा सूर्योदय से डेढ़ घंटे के भीतर अथवा रात्रि १० के बाद करें।

साधक – रात्री १० बजे के बाद साधना करें।

मूल मंत्र- ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद-प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नम:।

मूल मंत्र- श्रीं ।

मंत्र- ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौः जगत्प्रसूत्यै नमः।।

मंत्र- ॐ ह्रीं क्लीं कमला देवी फट् स्वाहा ।

शाबर मन्त्र – ॐ अयोनि शंकर ॐकार रूप, कमला देवी सती पार्वती का स्वरुप । हाथ में सोने का कलश, मुख से अभय मुद्रा । श्वेत वर्ण सेवा पूजा करे, नारद इन्द्रा । देवी देवत्या ने किया जय ॐकार। कमला देवी पूजो केशर, पान, सुपारी, चकमक चीनी फतरी तिल गुग्गल सहस्र कमलों का किया हवन । कहे गोरख, मन्त्र जपो जाप जपो ऋद्धि-सिद्धि की पहचान गंगा गौरजा पार्वती जान । जिसकी तीन लोक में भया मान । कमला देवी के चरण कमल को आदेश

पाठ – श्री सूक्त, कनकधारा स्तोत्र।

दस महाविद्या दैनिक मंत्र 

काली तारा महाविद्या षोडशी भूवनेश्वरी ।
भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ॥
बगलासिद्धि विद्या च मातङ᳭गी कमलात्मिका ।
एता दशमहाविद्या: सिद्धी विद्या: प्रकीर्तिता: ॥

दस महाविद्या शाबर मन्त्र

सुनो पार्वती हम मत्स्येन्द्र पूता, आदिनाथ नाती, हम शिव स्वरुप उलटी थापना थापी योगी का योग, दस विद्या शक्ति जानो, जिसका भेद शिव शंकर ही पायो । सिद्ध योग मर्म जो जाने विरला तिसको प्रसन्न भयी महाकालिका । योगी योग नित्य करे प्रातः उसे वरद भुवनेश्वरी माता । सिद्धासन सिद्ध, भया श्मशानी तिसके संग बैठी बगलामुखी । जोगी खड दर्शन को कर जानी, खुल गया ताला ब्रह्माण्ड भैरवी । नाभी स्थाने उडीय्यान बांधी मनीपुर चक्र में बैठी, छिन्नमस्ता रानी । ॐकार ध्यान लाग्या त्रिकुटी, प्रगटी तारा बाला सुन्दरी । पाताल जोगन (कुंडलिनी) गगन को चढ़ी, जहां पर बैठी त्रिपुर सुन्दरी । आलस मोड़े, निद्रा तोड़े तिसकी रक्षा देवी धूमावन्ती करें । हंसा जाये दसवें द्वारे देवी मातंगी का आवागमन खोजे । जो कमला देवी की धूनी चेताये तिसकी ऋद्धि सिद्धि से भण्डार भरे । जो दसविद्या का सुमिरण करे । पाप पुण्य से न्यारा रहे । योग अभ्यास से भये सिद्धा आवागमन निवरते । मन्त्र पढ़े सो नर अमर लोक में जाये ।

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