॥नारायण अवतार भगवान धन्वंतरि का प्रादुर्भाव॥
कार्तिक माह (पूर्णिमान्त) की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन समुद्र-मंन्थन के समय भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे, इसलिए इस तिथि को धनतेरस या धनत्रयोदशी के नाम से जाना जाता है। भारत सरकार ने धनतेरस को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।
॥बर्तन, धनिया और आभूषण खरीदने की प्रथा॥
धन्वन्तरि जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरि चूँकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन आभूषण खरीदने से उसमें तेरह गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर लोग धनियाँ के बीज खरीद कर भी घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।
॥अकाल मृत्यु से अभय वरदान॥
धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोककथा है। कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहाँ किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुँचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा। परन्तु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे, उसी समय उनमें से एक ने यम देवता से विनती की- हे यमराज! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यम देवता बोले, हे दूत! अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है, इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं, सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी रात जो प्राणी मेरे (यम देवता के) नाम से पूजन करके दीपमाला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है, उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं।
॥श्रीमहालक्ष्मी नारायण की पूजा विधि॥
॥धनतेरस पूजा का समय॥
धनतेरस पर, महालक्ष्मी नारायण पूजा और यम देवता के लिए दीपक प्रदोष काल के दौरान होती है। यह समय स्थानिक सूर्यास्त से शुरू होता है और लगभग दो घंटे चौबीस मिनट तक रहता है।
॥धनत्रयोदशी संकल्पम्॥
(दाहिने हाथ में जल और पुष्प लेकर संकल्प करें। संकल्प लेने के पश्चात पुष्प और जल को एक पात्र में छोड़ दे।)
ममात्मनः कार्तिक-कृष्ण-त्रयोदशी-निमित्ते श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-फलप्राप्त्यर्थं दु:ख-दारिद्रय-दौर्भाग्यादि-सकलदोष-शमनार्थं श्रीमहालक्ष्मीनारायण पूजन अहम् करिष्ये॥
॥श्री गुरु ध्यानम्॥
(दोनों हाथों में पुष्प लेकर ध्यान करें।)
अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम:॥
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्ञन शलाकया। चक्षुरुन्मिलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम:॥
देवताया दर्शनम् च करुणा वरुणालयं। सर्व सिद्धि प्रदातारं श्री गुरुं प्रणमाम्यहम्॥
वर-अभय कर नित्यं श्वेत पदम᳭ निवासिनं। महाभय निहन्तारं गुरुदेव नमाम्यहम्॥
॥वैदिक गणेश-स्तवन॥
(दोनों हाथों में पुष्प लेकर ध्यान करें।)
गणानां त्वा गणपतिगं᳭हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिगं᳭हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिगं᳭हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥ [शु॰यजु॰ २३।१९]
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्। ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ न: श्रृण्वन्नूतिभि: सीद सादनम्॥ [ऋक्॰ २।२३।१]
नि षु सीद गणपते गणेषु त्वामाहुर्विप्रतमं कवीनाम्। न ऋते त्वत्क्रियते किं चनारे महामर्कं मघवञ्चित्रमर्च॥ [ऋक्॰ १०।११२।९]
॥श्रीमहालक्ष्मीनारायण ध्यानम्॥
(दोनों हाथों में पुष्प लेकर श्रीमहालक्ष्मीनारायण का ध्यान करें।)
नमस्तेऽस्तू महामाये श्रीपिठे सूरपुजिते। शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोऽस्तुते॥
पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्हस्वरूपिणी। परमेशि जगन्मातर्र महालक्ष्मी नमोऽस्तुते॥
ॐ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्। लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:। श्रीमहालक्ष्मीनारायण ध्यायामि ध्यानार्थे पुष्पाणि समर्पयामि॥
॥श्रीमहालक्ष्मीनारायण प्राणप्रतिष्ठा॥
(दाहिनी अनामिका से श्रीयन्त्र के मध्य में अथवा महालक्ष्मीनारायण प्रतिमा के हृदय पर स्पर्श करें।)
ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमम् तनोत्वरिष्टम् यज्ञम् समिमम् दधातु।
विश्वे देवास इह मादयन्तामो ॐ प्रतिष्ठ॥ अस्यै प्राणा: प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणा: क्षरन्तु च। अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:। प्राणप्रतिष्ठापनार्थे सर्वोपचारार्थे च गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि। श्रीमहालक्ष्मीनारायणाय सुप्रतिष्ठिते वरदे भवेताम्॥
ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हं स: सोऽहं श्रीमहालक्ष्मीनारायणा प्राणा इह प्राणा: जीव इह स्थित: सर्वेन्द्रियाणि इह स्थितानि वाङ्-मनस्त्वक्-चक्षु-श्रोत्र-जिह्वा-घ्राणपाणि-पाद-पायूपस्थानि इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।
(पुष्प दें।)
श्रीमहालक्ष्मीनारायण इहागच्छहतिष्ठ॥ पुष्प पुष्पितास्तर्पिता: सन्तु।
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:। प्राणप्रतिष्ठापनार्थे अक्षतान्निवेदयामि श्रीमहालक्ष्मीनारायणाय सुप्रतिष्ठे सन्निहिते वरदे भवेतम्॥
॥श्रीमहालक्ष्मीनारायण षोडपाशोचार पूजनम्॥
आवाहन (आवहन करें)
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात। स भूमि सर्वत स्पृत्वाऽत्यत्तिष्ठद्दशाङ᳭गुलम्॥१॥
ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥१॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ आवहनम् समर्पयामि कल्पयामि॥
आसन (आसन दें)
पुरुष एवेदं सर्वं यद᳭भूतं यच्च भाव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥२॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥२॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ आसनम् समर्पयामि कल्पयामि॥
पाद्य (जल से पैर धोए)
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥३॥
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम्। श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्॥३॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ पाद्यं समर्पयामि कल्पयामि॥
अर्घ्य (अर्घ्य प्रदान करें | जल से हाथ धोए)
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः। ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशने अभि॥४॥
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्॥४॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ अर्घ्यं समर्पयामि कल्पयामि॥
आचमन (पानी पिलाए)
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः। स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥५॥
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्। तां पद्मिनीमीं शरणंप्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि॥५॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ आचमनीयं समर्पयामि कल्पयामि॥
स्नान (स्नान कराएं)
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्। पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥६॥
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः। तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥६॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ स्नानं समर्पयामि कल्पयामि॥
पञ्चामृत-स्नान (दूध, दही, घी, मधु, शक्कर)
पयोदधि घृतं चैवमधु च शर्करायुतम्। पञ्चामृतं मयाऽऽनीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ पञ्चामृत स्नानं समर्पयामि॥
शुद्धोदक स्नान (स्नान कराएं)
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती। नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन सन्निधिम कुरु॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि कल्पयामि॥
वस्त्र पहनाए
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दासि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥७॥
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह। प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥७॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ वस्त्रं समर्पयामि कल्पयामि॥
यज्ञोपवीत पहनाए
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः। गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥८॥
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्। अभूतिमसमृद्धिं च सर्वा निर्णुद मे गृहात्॥८॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम: ॥ यज्ञोपवीतं समर्पयामि कल्पयामि ॥
चन्दन
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः। तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥९॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरींग् सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥९॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ चन्दनं समर्पयामि कल्पयामि॥
पुष्प
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्यासीत किं बाहू किमूरू पादा उच्येते॥१०॥
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि। पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥१०॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ पुष्पाणि समर्पयामि कल्पयामि॥
धूप
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद᳭भ्यां शूद्रो अजायत॥११॥
कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम। श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥११॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ धूपं आघ्रापयामि कल्पयामि॥
दीप
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत॥१२॥
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे। नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥१२॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ दीपं दर्शयामि कल्पयामि॥
नैवेद्य
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद᳭भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ लोकाँ अकल्पयन्॥१३॥
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥१३॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ नैवेद्यं समर्पयामि कल्पयामि॥
(पांच बार भगवान को खाना खिलाए।)
प्राणाय स्वाहा। अपानाय स्वाहा। व्यानाय स्वाहा। उदानाय स्वाहा। समानाय स्वाहा।
(सरबत के लिए पानी दें)
मध्येपानीयम् समर्पयामि कल्पयामि।
(फिर से पांच बार भगवान को खाना खिलाए।)
प्राणाय स्वाहा। अपानाय स्वाहा। व्यानाय स्वाहा। उदानाय स्वाहा। समानाय स्वाहा।
(पानी से हाथ धोए)
हस्त प्रक्षालनम् समर्पयामि कल्पयामि।
(पानी से मुख धोए)
मुख प्रक्षालनम् समर्पयामि कल्पयामि।
आचमन (पानी पिलाए)
आचमनम् समर्पयामि कल्पयामि ।
प्रदक्षिणा
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥१४॥
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्। सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥१४॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ प्रदक्षिणां समर्पयामि कल्पयामि॥
नमस्कार
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥१५॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पूरुषानहम्॥१५॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ नमस्कारं समर्पयामि कल्पयामि॥
मंत्रपुष्प
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पू र्वे साध्याः सन्ति देवाः॥१६॥
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्। सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥१६॥
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीमहालक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:॥ मंत्रपुष्पं समर्पयामि कल्पयामि॥
॥श्री महालक्ष्मी आरती॥
ॐ जय लक्ष्मी माता मैया जय लक्ष्मी माता।
तुमको निशदिन सेवत हर-विष्णु धाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
उमा रमा ब्रह्माणी तुम ही जग-माता। मैया तुम ही जग-माता।
सूर्य चन्द्रमा ध्यावत नारद ऋषि गाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
दुर्गा रुप निरञ्जनि सुख सम्पत्ति दाता। मैया सुख सम्पत्ति दाता।
जो कोई तुमको ध्यावत
जो कोई तुमको ध्यावत ऋद्धि सिद्धि धन पाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
तुम पाताल निवासिनि तुम ही शुभदाता। मैया तुम ही शुभदाता।
कर्म प्रभाव प्रकाशिनी
कर्म प्रभाव प्रकाशिनी भवनिधि की त्राता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
जिस घर में तुम रहती तहँ सब सद् गुण हो जाता। मैया सब सद् गुण हो जाता।
सब सम्भव हो जाता
सब सम्भव हो जाता मन नहिं घबराता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
तुम बिन यज्ञ न होते वस्त्र न हो पाता। मैया वस्त्र न हो पाता।
खान पान का वैभव सब तुमसे आता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
शुभ गुण मन्दिर सुन्दर क्षीरोदधि जाता। मैया क्षीरोदधि जाता।
रत्न चतुर्दश तुम बिन
रत्न चतुर्दश तुम बिन कोई नहिं पाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
महालक्ष्मीजी की आरती जो कोई नर गाता। जो कोई नर गाता।
उर आनन्द समाता
उर आनन्द समाता पाप उतर जाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
॥श्री विष्णु आरती॥
आत्मन्नपहापाप्मन् परमात्मन् विष्णो। भूतात्मन् लोकात्मन् सर्वात्मन् विष्णो॥
कालात्मन् वेदात्मन् देवात्मन् विष्णो। प्राणात्मन् ज्ञानात्मन् रक्षात्मन् विष्णो॥
जयदेव जयदेव जय पुरुषोत्तम विष्णो। पावन परम परात्पर परमेश्वर विष्णो॥
जयदेव जयदेव जय पुरुषोत्तम विष्णो॥
सृष्टिस्थितिलयकारण भयहारण विष्णो। निजरुपैकविहाण तमहारण विष्णो॥
शरणागतवरदायक जलशायिन् विष्णो। विश्वव्यापक विधिहर तमहारण विष्णो॥
जयदेव जयदेव जय पुरुषोत्तम विष्णो। पावन परम परात्पर परमेश्वर विष्णो॥
जयदेव जयदेव जय पुरुषोत्तम विष्णो॥
विश्वेश्वर विश्वंभर वामनवर विष्णो। दामोदर सुंदरतर दानवहर विष्णो॥
गोवर्धनधर गोपी गोरक्षक विष्णो। श्रीकर श्रीधर श्रीवर श्रीशंकर विष्णो॥
जयदेव जयदेव जय पुरुषोत्तम विष्णो। पावन परम परात्पर परमेश्वर विष्णो॥
जयदेव जयदेव जय पुरुषोत्तम विष्णो॥
॥दक्षिण में दीपक रखते समय बोलने का स्तोत्र॥
॥अथ यमाष्टकम्॥
तपसा धर्ममाराध्य पुष्करे भास्करः पुरा। धर्मं सूर्यः सुतं प्राप धर्मराजं नमाम्यहम्॥१॥
समता सर्वभूतेषु यस्य सर्वस्य साक्षिणः। अतो यन्नाम शमनं इति तं प्रणमाम्यहम्॥२॥
येनान्तश्च कृतो विश्वे सर्वेषां जीविनां परम्। कर्मानुरूपं कालेन तं कृतान्तं नमाम्यहम्॥३॥
भिभर्ति दण्डं दण्डाय पापिनां शुद्धिहेतवे। नमामि तं दण्डधरं यश्शास्ता सर्वजीविनाम् ॥४॥
विश्वं च कलयत्येव यस्सर्वेषु च सन्ततम्। अतीव दुर्निवार्यं च तं कालं प्रणमाम्यहम्॥५॥
तपस्वी ब्रह्मनिष्टो यः सम्यमी सन् जितेन्द्रियः। जीवानां कर्मफलदः तं यमं प्रणमाम्यहम्॥६॥
स्वात्मारमश्च सर्वज्ञो मित्रं पुण्यकृतां भवेत्। पापिनां क्लेशदो नित्यं पुण्यमित्रं नमाम्यहम् ॥७॥
यज्जन्म ब्रह्मणोंशेन ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा। यो ध्यायति परं ब्रह्म तमीशं प्रणमाम्यहम्॥८॥
यमाष्टकमिदं नित्यं प्रातरुत्ताय यः पटेत्। यमात् तस्य भयं नास्ति सर्वपापात् विमुच्यते॥९॥
॥इति यमाष्टकम्॥
॥अकाल मृत्यु से अभय वरदान॥
धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोककथा है। कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहाँ किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुँचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा। परन्तु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे, उसी समय उनमें से एक ने यम देवता से विनती की- हे यमराज! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यम देवता बोले, हे दूत! अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है, इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं, सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी रात जो प्राणी मेरे (यम देवता के) नाम से पूजन करके दीपमाला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है, उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं।
॥दक्षिण में दीपक रखते समय बोलने का स्तोत्र॥
॥अथ यमाष्टकम्॥
तपसा धर्ममाराध्य पुष्करे भास्करः पुरा। धर्मं सूर्यः सुतं प्राप धर्मराजं नमाम्यहम्॥१॥
समता सर्वभूतेषु यस्य सर्वस्य साक्षिणः। अतो यन्नाम शमनं इति तं प्रणमाम्यहम्॥२॥
येनान्तश्च कृतो विश्वे सर्वेषां जीविनां परम्। कर्मानुरूपं कालेन तं कृतान्तं नमाम्यहम्॥३॥
भिभर्ति दण्डं दण्डाय पापिनां शुद्धिहेतवे। नमामि तं दण्डधरं यश्शास्ता सर्वजीविनाम् ॥४॥
विश्वं च कलयत्येव यस्सर्वेषु च सन्ततम्। अतीव दुर्निवार्यं च तं कालं प्रणमाम्यहम्॥५॥
तपस्वी ब्रह्मनिष्टो यः सम्यमी सन् जितेन्द्रियः। जीवानां कर्मफलदः तं यमं प्रणमाम्यहम्॥६॥
स्वात्मारमश्च सर्वज्ञो मित्रं पुण्यकृतां भवेत्। पापिनां क्लेशदो नित्यं पुण्यमित्रं नमाम्यहम् ॥७॥
यज्जन्म ब्रह्मणोंशेन ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा। यो ध्यायति परं ब्रह्म तमीशं प्रणमाम्यहम्॥८॥
यमाष्टकमिदं नित्यं प्रातरुत्ताय यः पटेत्। यमात् तस्य भयं नास्ति सर्वपापात् विमुच्यते॥९॥
॥इति यमाष्टकम्॥